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DOCTOR PROFILE HINDI

मैं डॉ. शशि भूषण कुमार एम.बी.बी.एस.; एम.डी. (मानिसक रोग) लगभग तीन दशक के कुछ गहरे और संवेदनशील अनुभव को आपसे बांटना चाहता हूं।

यकीनन, इंटरनेट के इस अद्भुत प्लेटफार्म पर मुझसे मिलने वाले हमारे परिवार के ही अंग जो ठहरे। बिहार के एक सामान्य किसान परिवार में मेरा जन्म हुआ। मेरी जन्मभूमि भारत ही नहीं विश्व की सबसे बड़ी सांस्कृतिक धरोहरों में एक है।

इसी पवित्र भूमि पर महात्मा बुद्ध को ज्ञान हासिल हुआ था, भगवान महावीर की मोक्ष यानि निर्वाण की प्राप्ति हुई थी। विश्व का पूर्ण आवासीय प्रथम विश्वविद्यालय “नालंदा', इसी भौगोलिक क्षेत्र की पहचान है। मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हूं कि मेरा जन्म भी इसी पवित्र भूमि पर हुआ।

उम्र के संग-संग मेरी समझ बढ़ी और डॉक्टरी का पेशा मुझे देवदूत-सा लगने लगा। क्या चमत्कार? कुछ टबलेट मात्र से मलेरिया से तड़पती मेरी मां फिर से रोटियां सेकने लगी। फिर देरी किस बात की! समझ गया आगे क्‍या करना है? जवाब सीधा- डॉक्टर, बस केवल डॉक्टर बनना। यात्रा शुरू हुई, सामान्य से सरकारी स्कूल में पढ़ा, बारहवीं के बाद लग गया तैयारी में, ईश्वर की असीम कृपा से सफलता मिली और पटना मेडिकल कॉलेज में नामांकन हो गया।

मंजिल की तलाश, मन ही मन चलता रहा, और वक्त की एक कठिन चुनौती मेरे सामने थी। आगे “पीजी” यानि विशेषज्ञता हासिल करने का यक्ष प्रश्न। साथ-साथ दो सपने पलने लगें, साधन सीमित पर आशा बड़ी।

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्‍ली से ही पीजी करने कौ जिदूद। सभी के आशीर्वाद और अथक परिश्रम से इसे भी मैंने हासिल कर ही लिया। बहुत कम समय में ही मेरी रुचि अपने विषय “मानसिक रोग' में रम गया। इस बीमारी को झेलते परिवार और मरीज मेरे मन को काफी गहराई तक छूने लगे। मनोविज्ञान का वृहतर संसार रोचक और सूचनाओं से अटा पड़ा मिला, जल्दी ही मेरी भी सोच और विचार बदलने लगे। एम्स का तीन वर्ष ऐसा बीता कि मानो अभी-अभी तो आया था।

पढ़ने के दौरान ही मैंने मानसिक रोग के सभी पक्षों को जांचने-परखने में अपना ध्यान केन्द्रित किया। पहले मुझे लगा कि मेडिकल साइन्स की यह शाखा बिल्कुल नयी हैं क्योंकि उन्‍नीसवीं सदी के प्रारंभ में जॉन क्रिश्चियन रेल ने मानसिक रोग "Psychiatry" शब्द से संबोधित किया था और इसका सीधा अर्थ था: “आत्मा का आयुर्विज्ञानिक इलाज'.

>पर मेरे मन में एक सवाल कौंधने लगा कि अपनी भारतीय परम्परा में मानसिक बीमारी पर हमारे आचार्यों का क्या विचार है? इसी खोज में आयुर्वेद की सबसे मौलिक और प्रतिष्ठित ग्रंथ “चरक संहिता' मेरे हाथ 'लगी। इसमें जो मिला उसे पढ़कर आंखे भर गई, क्या खूब?

त्रयो रोगा इति-निजागन्तुमानसा:
तत्र निज: शारीरदोषसमुत्थ: ,आगन्तुर्भूतविषवाय्यग्नि
सम्प्रहारादिसमुत्य: , मानस: पुनीरष्टस्थालाभाल्लाभाच्चानिष्ट-स्योपजायते॥45
चर्क संहित (पृष्ठ-244, भाग-१)

(अर्थ- रोग तीन प्रकार के होते हैं। इनके भेद- ।. निज, 2. आगन्तुक, 3. मानस।

निज रोग  शरीर संबंधी वात, पित्त, कफ दोषों से उत्पन्न होते हैं। आगन्तुक रोग: भूतावेद आदि से, विष प्रयोग अथवा विषाक्त वायु के स्पर्श से, अग्निदाहल, चोट, आधात आदि से होते हैं। मानस रोग- इष्ट (इच्छित) पदार्थों के न मिलने और अनिष्ट (अनिच्छित) पदार्थों के मिलने से होता है।

यही नहीं आगे “चरक संहिता' में कहा गया है कि यदि व्यक्ति अपनी सामाजिक, आर्थिक व शारीरिक क्षमता के अनुसार व्यवहार करे तो मानसिक रोग से बचा जा सकता है।

आज भी मानसिक रोग की मौलिक परिभाषा यही है। यदि इसी बात का कोई सच्चे दिल से मान ले तो 21वीं शताब्दी के तनाव से बचा जा सकता है। समय बीतता गया और मैं दिल्‍ली का वासी बन गया। फिर इस महानगर की जिन्दगी देखकर हैरान और परेशान हो गया। सुबह से शाम तक की भागदौड़, तुलनात्मक जीवन और गला कट प्रतियोगिता काफी है मन को दबाव में डालने के लिए।

संयुक्त परिवार का तार-तार होना और हर आदमी पर शहरी संस्कृति का बढ़ता बोझ काफी है मन को परेशान करने के लिए। आर्थिक उदारीकरण, बाजारवाद और उपभोक्ता संस्कृति ने खूब सुख और विकल्प दिया है हमारे सामने। पर छीन लिया है हंसता जीवन।

चाहे, अनचाहे अनेक समस्याओं से लोग परेशान है और झेलता है शरीर का सबसे बड़ा मशीन 'दिमाग' और हद तब हो जाती है जब कोई नौजवान की मां आकर कहती है “डॉक्टर साहब मेरे बेटा कहता है, मैं मरना चाहता हूं।'” कोई कहता है मेरी बहू कहती है कि मेरी सासू मां पानी मे जृहर देना चाहती है। एक छोटे बच्चे की मां कहती है मेरा बेटा पढ़ता है पर उसे कुछ याद नही होता है। मानवीय संवेदनाओं और अनुभूतियों से जुड़कर कई दफे मैं भी सोचता हूं आखिर हमारी युवा शक्ति कैसे राष्ट्र निर्माण में लगेगी, लेकिन संकल्पित हूं, जो भी संभव होगा समाज के लिए करूंगा।

वर्ष 200। से 2003 के बीच एम्स, नयी दिल्ली से एम.डी. किया, फिर मार्च 2004 से 2007 तक लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज, नयी दिल्‍ली से सीनियर रेजीडेंसी किया। फिर वर्ष 2007 से 2009 तक मेट्रो अस्पताल पटेल नगर में रहा।

इसी बीच भारत के प्रतिष्ठित अस्पताल “इंडियन स्पाइनल इंजूरीज्‌ सेंटर वसंत कुंज में वरिष्ठ सलाहकार के पद पर ज्वान किया और अभी भी वहां काम कर रहा हूं। इसके अतिरिक्त सुन्दर लाल जैन अस्पताल, अशोक विहार, दिल्‍ली से मेरा संबंध है।

सभी जगहों पर अपनी शानदार उपस्थिति के बाद अपने जीवन को एक नया रूप देने के लिए मैं प्रतिदिन शालीमार बागा और रोहिणी में अपना प्राइवेट क्लिनिक चलाता हूं। मन में इच्छा होती है कि अधिक से अधिक लोगों की सेवा करूं और उन्हें एक उत्साहभरा जीवन दूं।

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